आपातकाल की मेरी यादें
Jun 26, 2023By Srivallabh Mishra
श्रीवल्लभ मिश्र
सरकार विरोधी साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण के आरोप में डीआईआर के तहत, आपात्काल के दौरान मेरी गिरफ्तारी की गई थी।
सात जनवरी 77 को आधी रात पुलिस ने दरवाजा खटखटाया गया, जिसे बाहर बैठक में सो रहे 90 वर्षीय पिता जी ने खोल दिया तथा मुझे आवाज दी। माघ मेला प्रारंभ हो चुका था अतः अतिथियों का किसी भी समय आवागमन आम बात थी ।
जब मैं लिहाफ से बाहर निकल कर आया तो वर्दीधारी दो पुलिस दिखाई पडे, कुछ अन्य सादा लिबास में भी थे। मैने पूछा इतनी रात कैसे आना हुआ? तो कहा तलाशी लेना है मैने पूछा किसका आदेश है ? परंतु वे सबइंस्पेक्टर के इशारे पर अंदर घुसकर कमरे खोलने पर दबाव देने लगे, कोई कागज तो था नहीं, होगा भी तो विरोध करना बेकार लगा। मैने फिर आग्रह किया कि “रुक जाइए ताकि कार्यवाई के गवाह भी रहें ।” उन्होंने कहा मकान मालिक व किसी पड़ोसी को आप बुलाइये हम अपना काम करते हैं ।
ऊपर के कमरे में बच्चे सो रहे थे, उनकी किताबें, बैग, अलमारी देखना शुरू कर दिया। बच्चे आहट से उठे और स्तब्ध रह गए कि ये ही क्या रहा है। जब पड़ोस के लोग आ गये तो हमारे कमरे में रखी अलमारी, बक्से सब खोलकर सामान उलट पलट कर दिया। अंततः रसोई घर की खुली अलमारी में रखे ‘संघर्ष समाचार’ पर्चे व लगभग बीस किताबें ’44वां संविधान — लोक स्वातंत्र्यों की मृत्यु घंटी’ ‘सांसद मथु लिमये के लिखित लेख के बंडल बनाकर मेरे अनुरोध पर गवाहों के हस्ताक्षर कराकर ले गये, लेकिन कोई रसीद नहीं दी गई। लगभग दो बजे रात्रि कार्यवाई समाप्त हुई तथा मुझे साथ ले जाकर कीडगंज थाने की हवालात में बंद कर दिया। भयंकर ठंड में एक अरुचिकर कंबल तथा मच्छरों का साथ नींद पर हावी था । सुबह शौच आदि से निवृत्त होने के लिए निकाला तो एक हाथ की हथकड़ी खोल दी गई, वापस आने पर पुनः हथकड़ी लगा दी गई। प्रातः नौ बजे से पूछताछ का सिलसिला शुरू हुआ तो रात दो बजे तक अलग अलग टीम साक्षात्कार लेती रही। घुमा-फिराकर वही वही सवाल हर टीम ने पूछे:
“आपके साथी कौन-कौन हैं ?”
“कब से पर्चे छाप रहे हैं ?”
“किस प्रैस से छपवाने हैं? एक बार में कितने पर्चे छपते हैं ?”
“मधु लिमये से संपर्क कैसे बना?”
“जेल में बंद हैं तो उनके वक्तव्य किसके जरिए मिलते हैं?”
“छपी सामग्री का वितरण?”
“घर परिवार” आदि।
स्थानीय गुप्तचर का दल गया, तो केन्द्रीय दल आ बैठता।
नौ जनवरी शाम चार बजे मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दो दिन का रिमांड ले लिया गया। मैने बहुत कहा कि इनके प्रकाशन, वितरण आरोप सब मुझे स्वीकार हैं ।
7,8 व 9 जनवरी की ठंडी रातें लगभग बिना सोये जबावदेही में व्यतीत हुई।
इन तीन दिनों में दो चाय प्रतिदिन मुफ्त पीने को मिली, टिफिन घर से आता था वह भी आधा जांच के बाद दिया जाता था।
थाने में गुजरे तीन दिन रात थाना प्रभारी की अमानवीय गालियों की बौछार मिलती रही। धमकी दी गई कि पत्नी को भी बंद कर दूंगा। बार-बार यह धमकी दुहराने पर मैने भी कह दिया कि “दरोगा जी वर्दी आप पहने हैं आपके बीबी बच्चे नहीं? मुझे आपकी मेहरबानी नहीं चाहिए। मैने जो किया, पूरे होशोहवास में किया है , जागरूक बनाना ही मेरा कर्तव्य है ।”
दस जनवरी को पुनः मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी हुई, अंततः केन्द्रीय कारागार नैनी इलाहाबाद में निरुद्ध कर दिया गया। संयोग अच्छा था कि राजनैतिक कैदियों का जत्था पेशी से लौटा तो जेल अधीक्षक से कहकर सामान्य कैदियो की लाइन से मुझे राजनैतिक कैदियों की बैरक में शामिल कर दिया गया। एक सप्ताह बाद, 17 जनवरी को चुनाव कराने की घोषणा हो गई 30 जनवरी को दो जमानत देकर मुक्त कर दिया गया।
उस दौर से आज की तुलना करता हूं तो लगता है, आज बहुत अलग नही है। दमन, संवैधानिक संस्थाओं पर हमला, चौथा स्तम्भ कहा जाने वाले मीडिया के खिलाफ कार्रवाई से येन-केन प्रकारेण जनहित की आवाज दबाना, “हिंदू खतरे में है” का प्रचार किया जाना, ईडी , सीबीआई जांच ऐजेंसियों से विपक्ष को अनैतिक, अनाचारी प्रचारित कर संविधान की उपेक्षा की जा रही है। हिटलर भी चुनाव जीत कर तानाशाह बना था , वर्तमान सत्ता भी द्रुत गति से इसी ओर अग्रसर दिखने लगी है । यह आपातकाल जैसा ही समय है।
लेखक उत्तरप्रदेश पीयूसीएल के आजीवन सदस्य हैं।