आपातकाल की मेरी यादें

Jun 26, 2023
By Vinay Sinha

विनय सिन्हा
श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी केंद्र सरकार के खिलाफ पहले गुजरात और उसके बाद बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हुआ। केंद्र सरकार के इशारों पर दोनों राज्यों की सरकारों ने छात्र आंदोलन को कुचलना शुरू कर दिया। गुजरात में आंदोलन कुछ मंद पड़ गया लेकिन बिहार में वह उग्र हो गया। बिहार के छात्रों के अनुरोध पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। आंदोलन में छात्रों की मांगों के साथ आम लोगों की मांगों को जोड़ दिया गया। उसका असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ा। कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों और केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। बिहार का छात्र आंदोलन बिहार आंदोलन में तब्दील हो गया।
राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में श्रीमती इंदिरा गांधी की चुनाव में जीत को चुनौती दी थी। उनका आरोप था कि चुनाव में धांधली हुई है। श्रीमती गांधी के खिलाफ कोर्ट का फैसला आते ही बिहार समेत पूरे देश में उनके इस्तीफे की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया। श्रीमती गांधी ने अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए अफरा-तफरी में 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू कर दिया। आपातकाल 21 महीने अर्थात 21 मार्च 1977 तक रहा।
लोकसभा चुनाव 1971 में हुआ था। उस चुनाव में श्रीमती गांधी की कांग्रेस को 350 सीटें मिली थी। श्रीमती गांधी को रायबरेली सीट पर कामयाबी मिली थी। उन्होंने अपने मुख्य विरोधी उम्मीदवार राजनारायण को परास्त किया था। चुनाव में हार गए राजनारायण ने श्रीमती गांधी पर अपनी जीत के लिए सरकारी मिशनरी का गलत इस्तेमाल करने, सीमा से अधिक खर्च करने समेत कई गंभीर आरोप लगाकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में मामला दर्ज किया। कोर्ट ने मामले का संज्ञान लिया। पूरी सुनवाई के बाद कोर्ट ने 12 जून 1975 को श्रीमती गांधी को दोषी माना और उन्हें अयोग्य होने का फैसला सुनाया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी 24 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखने का फैसला सुनाया।
आपातकाल का ऐलान होते ही देशभर के विरोधी नेताओं, कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, साहित्यकारों और पत्रकारों को गिरफ्तार किया जाने लगा और उन्हें यातनाएं दी जाने लगी। अखबारों और पत्रिकाओं पर पहरा बैठा दिया गया और खबरों को सेंसर किया जाने लगा। जहां भी सरकार के विरोध में किसी भी गतिविधि का शक होता, वहां छापेमारी की जाती। पूरे देश में आतंक और भय का माहौल बना दिया गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की भी गिरफ्तारी हो गई। केंद्र सरकार और राज्यों की केंद्र सरकारों की ओर से आंदोलनकारियों पर जुल्म ढहाने का सिलसिला शुरू हो गया, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता।
श्रीमती गांधी ने दमन का रास्ता अख्तियार किया। श्रीमती गांधी की पार्टी के जिन नेताओं ने उनके इस कदम का समर्थन नहीं किया, उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता चंद्रशेखर और रामधन राम को भी जेल भेज दिया।
जब श्रीमती गांधी को लगा कि उनका विरोध शिथिल पर गया तो उन्होंने आपातकाल को हटाए बिना ही लोकसभा चुनाव का ऐलान कर दिया। लेकिन चुनाव में श्रीमती गांधी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। उनकी पार्टी की सीटें 350 से घटकर 153 हो गई। श्रीमती गांधी को पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा और केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार (जनता पार्टी की सरकार) बनी।
आपातकाल में संघर्ष
जब 1973-74 से धीरे-धीरे बिहार आंदोलन जोर पकड़ने लगा, तो केंद्र सरकार की नौकरी के बावजूद मेरा कभी पटना में तो कभी इलाहाबाद में समाजवादियों के कार्यक्रम में स्वयंस्फूर्त हिस्सा लेना बढ़ गया था।
जब आपातकाल लगा तो मैं इलाहाबाद में था और रक्षा लेखा नियंत्रक (पेंशन) में कार्यरत था। वहां की कर्मचारी यूनियन का जनरल सेक्रेटरी था। एजी ऑफिस के कृपाशंकर श्रीवास्तव, धनवीर पारसरी और कल्पनाथ सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। वे कर्मचारी नेता थे। मैं छिपकर शहर में यहां वहां रहने लगा। मेरे पास साइक्लोस्टाइल करने की एक मशीन थी। मैं उसी की मदद से मुक्ति संग्राम और कभी कभी हाथ का लिखा पर्चा निकालकर लोगों में बांटने लगा। इस काम में प्राध्यापक नरेश सहगल, डॉक्टर श्री वल्लभ, और मेरी अहम भूमिका थी। रवि किरण जैन समेत कई लोगों से लगातार मदद मिलने लगी थी।
मैं छिपकर रहने के लिए इलाहाबाद से पटना चला गया था। पटना आकर मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा वाले पत्र में मैंने लिखा की आजादी पर पाबंदी लगा दी गई है। अपनी बात नहीं कही जा सकती है। लेखन और वाणी के स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया गया है। प्रेस की आजादी छीन ली गई है। ऐसी स्थिति में मैं केंद्र सरकार की सेवा करने में अक्षम हूं।  मैं स्वेच्छा से इस्तीफा दे रहा हूं।
जब मैं पटना में था, तो मेरी भाभी बेला प्रसाद ने मेरी काफी मदद की। वह कवियत्री हैं। उनकी प्रकाशित ‘आखरि खत’ कविता संग्रह है। वह पेंटिंग भी करती हैं। वह मुक्ति संग्राम के लिए कागज मुहैया करा देती थी। मैं बिहार पटना से बिहारशरीफ चला जाता था। वहां कई दिन छुपकर रहता था और आपातकाल का विरोध करता था।
पटना में मैंने अख्तर हुसैन, रघुपति, बजरंग सिंह, करुणा झा समेत कई साथियों से मुलाकात की। वह लोहिया मंच से जुड़े थे और बिहार आंदोलन में बेहद सक्रिय थे। हम लोग गुप्त रूप से पर्चा निकालते  और उसे बांटते थे। करुणा झा पटना में मेडिकल की पढ़ाई करते वक्त हॉस्टल में रहती थी। वह पर्चा निकालने में काफी मदद करती थी।
बजरंग सिंह और कई साथी मिलजुलकर आपातकाल के पहले से ही मुक्ति संग्राम पत्रिका निकालते और उसे बांटते थे। आपातकाल में भी यह प्रक्रिया जारी रही। हालांकि पुलिस प्रशासन से बचने के लिए काफी सावधानी बरती जा रही थी।
मुझे याद है कि मैं छिपने के लिए जब करुणा जी के कमरे में चला जाता था तब बाहर से ताला लगा दिया जाता था। कभी-कभी अपने बड़े भाई डॉक्टर उमेश प्रसाद के यहां ठहरता था। मैं कहीं भी अधिक दिन तक नहीं ठहरता था।
मुक्ति संग्राम पत्रिका और पर्चा के काम के दौरान मुझे तरह तरह के अनुभव हुए और समझ विकसित हुई। यह भी नजदीक से देखने को मिला कि संघर्ष और जोखिम उठाने के काम में कौन लोग मददगार होते हैं और कितने लोग केवल दिखावा व ढोंग करते हैं। ऐसे मौके पर अधिकतर लोग दूरी बना देते हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है।
इलाहाबाद में तमाम कर्मचारियों, मेरे सहकर्मी रहे साथियों ने केवल पर्चा निकालने और बांटने में ही मदद नहीं की बल्कि मुझे आर्थिक मदद देने में भी कोई कोताही नहीं की। नौकरी से इस्तीफा देने के बाद मेरे सामने और आर्थिक संकट था। मेरे साथियों ने मुझे उस संकट से उबारा।
आपातकाल के दौरान इलाहाबाद में मेरे तमाम साथी गिरफ्तार कर लिए गए थे। मुझ पर भी यह तलवार लटकी थी। मैं बिहार शरीफ चला गया। वहां मैं अपने मित्र अभय कुमार सिंह और बिहार शरीफ के वरिष्ठ वकील सुदामा सिंह के साथ कचहरी जाने लगा। लेकिन एक दिन पुलिस ने मेरे घर पर छापा मारा। उस दिन मैं पटना में था। दूसरे दिन अभय ने बताया कि पुलिस आई थी और तुम्हारे बारे में पूछ रही थी। मुझे उस वक्त पैसे की भी तंगी हो गई थी। इसलिए मैं वापस इलाहाबाद आ गया। आपातकाल खत्म होने के बाद मैंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी। इसमें सबसे अधिक मुझे रवि किरण जैन ने संरक्षण दिया। उन्हीं के अधीन रहकर मैंने कोर्ट में प्रैक्टिस आरंभ किया और इस क्षेत्र में उनकी मदद से कामयाबी हासिल की।
आपातकाल में कलकत्ता (कोलकाता)
श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश में अपने विरोधियों को कुचलने के तमाम हथकंडे अपनाए गए थे। इसके बावजूद भूमिगत होने वाले आंदोलनकारियों की गतिविधियों में कमी नहीं आई। देशभर में गुप्त बैठकें हो रही थी। तय रणनीति को कार्यान्वित किया जा रहा था।
लोहिया विचार मंच के नेताओं-कार्यकर्ताओं की कलकत्ता में बैठकें होती थी। एक बैठक में मैं हिस्सा लेने पहुंचा। हावड़ा स्टेशन से मुझे लेने राम अवतार उमराव आए थे। वे उत्तर प्रदेश के थे और कलकत्ता में हाई स्कूल के शिक्षक थे। मेरे पास एक बड़ा बैग था, जिसमें मुक्ति संग्राम की प्रतियां थी। उमराव जी ने कुली का वेश धारण कर लिया था, ताकि हम लोगों पर खुफिया विभाग के लोगों को कोई शक ना हो। किसी को भी शक नहीं हुआ।
उस समय रेलवे स्टेशन, बस अड्डे जैसे तमाम सार्वजनिक व महत्वपूर्ण स्थानों में खुफिया विभाग के लोग भारी संख्या में मौजूद रहते थे। हर आने-जाने वालों पर निगरानी रखी जाती थी। उन्हें जिस पर भी थोड़ा शक होता, धर लिया जाता और उससे पूछताछ शुरू हो जाती। कलकत्ता में ही बिहार के कई बड़े समाजवादियों की गिरफ्तारी हो चुकी थी।
मैं और उमराव जी उस जगह बेरोक-टोक पर पहुंच गए, जहां बैठक होने वाली थी। वहां किशन पटनायक, योगेंद्र पाल समेत कई साथी मौजूद थे। तय समय के अनुसार बैठक हुई। किसी को भी उसकी भनक नहीं लगी। बैठक में कई रणनीति तय हुई। एक रणनीति यह थी कि छिपकर रहने में पहले से ज्यादा चौकसी बरतने के साथ अपने आप को हर हाल में गिरफ्तार होने से बचाना है। सरकार बौखलाई हुई थी।
कलकत्ता में बिहार, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश सहित विभिन्न राज्यों के लोग काफी संख्या में रहते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के नेताओं का अपने-अपने इलाकों के उन लोगों से संपर्क बना हुआ था, जो वहां (कलकत्ता) रहते थे। वे समय-समय पर आर्थिक मदद देते रहते थे। वे बिहार आंदोलन के नेताओं को छिपाकर रखने एवं दूसरी जगह जाने की व्यवस्था करने में काफी मददगार होते थे। खुफिया विभाग के जो लोग बिहार एवं उत्तर प्रदेश के थे, उन्हें उन राज्य के नेताओं को पहचानने और गिरफ्तार करने का काम दिया गया था।
मैं कोलकाता से मध्य प्रदेश के रीवा सहित कई स्थानों पर गया। एक  तो अपने को छिपाकर रखना और दूसरे साथियों से मिलकर कार्यक्रमों को कामयाब भी कराना होता था। जेल में बंद साथियों को संदेश देना और उनका संदेश लेना महत्वपूर्ण कार्य था। बीच-बीच में मध्य प्रदेश के विभिन्न जगहों से इलाहाबाद आना जाना था। इसका कारण यह था कि इलाहाबाद से खर्च के लिए राशि मिल जाती थी। इलाहाबाद में अधिकतर साथी गिरफ्तार कर लिए गए थे, कुछ ही साथी बाहर रह गए थे।
हेमवती नंदन बहुगुणा और मैं
आपातकाल में इलाहाबाद के साथी कृपाशंकर श्रीवास्तव, धर्मवीर पारसली और कल्पनाथ सिंह की गिरफ्तारी और उन पर लगाए गए कठोर धाराओं से हम लोग चिंतित थे। उन पर लगे कठोर धाराओं को नरम करने और उन्हें जमानत पर छुड़ाने की जरूरत थी। अपने कई साथियों से सलाह मशविरा कर यह तय हुआ कि इस मामले को लेकर मुख्यमंत्री से मुलाकात की जाए। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा थे। उनका इलाहाबाद से काफी लगाव था। उन्होंने यहां उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। वह कांग्रेस के बड़े नेताओं में एक माने जाते थे। उन्हें कांग्रेस का चाणक्य कहा जाता था। कांग्रेसी होने के बावजूद उनसे मेरा अच्छा संपर्क था। कांग्रेस विरोधी होने के बावजूद वे मुझसे तथा अन्य विरोधी पार्टी के युवा नेताओं से स्नेह करते थे।
मैं अपने साथियों के साथ लखनऊ उनके यहां पहुंचा तथा उनके चेंबर में अपना नाम लिख पर्चा भिजवाया। उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया। फिर उन्होंने हम लोगों से अकेले में बातचीत की। मैंने गिरफ्तार अपने तीन साथियों के बारे में जिक्र किया तथा अनुरोध किया कि उन पर मीसा (आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम) न लगाया जाए। उन्होंने इस पर मुस्कुराते हुए कहा कि जिसकी गर्दन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही हो, वह अपने साथियों के लिए सिफारिश करने आया है। उसे खुद की गिरफ्तारी की चिंता नहीं है। उनका इशारा मेरी ओर था। फिर उन्होंने भरोसा दिया कि उनके यहां से (कार्यालय के अहाते से) मेरी गिरफ्तारी नहीं होगी। घबराने की जरूरत नहीं है। हालांकि यहां से बच निकलने की जरूरत है। उन्होंने समझाया कि वह मेरे तीन साथियों के लिए कुछ नहीं कर सकते। कुछ भी करना उनके हाथ में नहीं है। सब कुछ मैडम (श्रीमती इंदिरा गांधी) के हाथ में है। हम लोगों को बहुगुणा जी की मजबूरी समझने में देर नहीं लगी।
हम लोग जब वहां से चलने लगे तो उन्होंने मुझे बुलाया और एक व्यक्ति का नाम बताते हुए कहा कि उनसे मिल लेना, जितने भी रुपए की जरूरत होगी वह मदद कर देंगे। डरने की जरूरत नहीं है। उन्होंने खुद भी कुछ रुपए दिए तथा जाने के लिए वाहन की व्यवस्था कर दी।
मैं उनके यहां से चलने के बाद अपनी गिरफ्तारी की चिंता करने लगा। मैंने बीच रास्ते में साथियों से अलग चले जाने के लिए कहा। परंतु वे लोग उसके लिए तैयार नहीं हुए। मैं खुद उनसे अलग हो गया। ऐसा मैंने इसलिए किया कि मेरे चलते उनकी गिरफ्तारी न हो जाए। अंततोगत्वा हम लोग इलाहाबाद पहुंच गए।
साथियों का यहां-वहां छिपना
आपातकाल में मैं छिपकर रहता था। छिपने के लिए दूसरी जगहों के साथी मेरे पास आते रहते थे। उन्हें छिपाकर रखना पड़ता था। इस काम में इलाहाबाद के साथी मदद करते थे।
पटना के साथी अख्तर हुसैन मेरे पास आ गए। मेरे साथी सतीश मिश्र बिहार के मधुबनी के हैं। वह मेरे सहकर्मी थे। वे अख्तर जी को अपने घर में रखने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपनी मां को मेरा छोटा भाई बता कर अपने घर में रख लिया। मां मैथिली ब्राह्मण थी, पूजा पाठ में लिप्त रहती थी। घर में नियमित और खूब पूजा-पाठ करती थी। वह या घर का कोई भी सदस्य बिना पूजा पाठ किए भोजन नहीं करता था। मां मेरा छोटा भाई मान अख्तर जी की खूब देखभाल किया करती थी। उनके कपड़े साफ कर दिया करती थी। फटी हुई कमीज की सिलाई भी कर देती थी।
हम लोगों को दो तरीके का डर था। पहला, पुलिस को अख्तर जी के बारे में भनक न लगे और दूसरा मां को कोई शक न हो जाए। असलियत का पता चलने पर उन्हें कितना दुख होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था। हम लोग हर तरह से सचेत रहते थे। थोड़े दिन बाद अख्तर जी चले गए। अधिक दिन तक एक जगह रहना खतरा मोल लेना था।
इलाहाबाद में ही मेरे एक साथी (रमेश चंद्र कुशवाहा) को गिरफ्तार कर लिया गया था। वह केंद्र सरकार के खिलाफ पर्चा बांट रहे थे। पुलिस ने उनके यहां तलाशी ली, तो सरकार विरोधी कई तरह के पर्चे मिले। उनकी मां परेशान हो गई। उन्होंने थाने के एक अधिकारी से बातचीत की और अपने बेटे को छोड़ देने का अनुरोध किया। बेटे को छुड़ाने की एवज में वह अधिकारी को रुपए देने के लिए तैयार थी। अधिकारी भी तैयार हो गया। उसने रमेशचंद्र को उसकी मां के सामने लाया और माफीनामा लिखने के लिए कहा। इस पर रमेश चंद्र ने कहा कि यहां से छूटने के बाद मैं अपना काम नहीं छोडूंगा, अर्थात आपातकाल और केंद्र सरकार के खिलाफ पर्चा बांटता रहूंगा। इस पर अधिकारी आग बबूला हो गया और रमेश चंद्र की मां को कहा कि आपका बेटा तो मेरी नौकरी ले लेगा। उसके बाद फौरन मां के सामने ही रमेश चंद्र कुशवाहा सलाखों के पीछे चले गए। मां रोते हुए घर आ गई।
इस घटना के बारे में मुझे पता नहीं था। मैं थाने में हुए उस घटना के एक दिन बाद ही रमेश चंद्र के घर चला गया। उनकी मां आंगन में झाड़ू लगा रही थी। मैंने पूछा रमेश कहां है? मेरे पूछने से ही वह भड़क गई। गुस्से में उन्होंने मुझे खरी-खोटी सुनाते हुए कहा कि उसे जेल भिजवा कर अब उसके बारे में पूछने आए हो। उन्होंने एक तरह से मुझे वहां से खदेड़ ही दिया। मैं वहां से भाग खड़ा हुआ। बाद में मुझे उस पूरे घटना का पता चल गया। रमेश की मां हम सभी को हमेशा प्यार करती रही है। आपातकाल खत्म होने के बाद मुझे और ज्यादा प्यार करने लगी।
पुलिस मेरी तलाश कर रही थी और मैं उसे चकमा दे रहा था। बौखलाई पुलिस ने मेरे घर की तलाशी ली। वह मेरी किताबें और जरूरी सामान उठाकर ले गई। यह देख मोहल्ले के लोग आतंकित हो गए। वह चुपके-चुपके मेरी मदद करते थे। वे सोचने लगे कि मेरे कारण कहीं उन पर पुलिसिया जुल्म न बढ़ जाए। उसके बाद उन्हें मेरा मोहल्ले में आना जाना ठीक नहीं लगा। पुलिस इस ताक में थी कि मैं मोहल्ले में जाऊं कि वह मुझे धर दबोचे। मैं सतर्क हो गया।
मेरी गिरफ्तारी और जमानत
मैं गिरफ्तारी से बच नहीं सकता था। तब मैंने सोचा कि पुलिस के गिरफ्तार करने के पहले पहले मैं खुद क्यों नहीं अपनी गिरफ्तारी दे दूं! चार-पांच साथियों के साथ मैंने इलाहाबाद कोतवाली थाने के सामने आपातकाल और केंद्र सरकार के विरोध में प्रदर्शन करना तय किया।
पूर्व योजना के मुताबिक हम लोगों ने 25 जून 1976 को थाने के सामने प्रदर्शन किया और अपनी गिरफ्तारी दी। गिरफ्तारी देने वालों में मेरे साथ गोपाल मिश्र, माधवलाल पुरवार, सत्य प्रकाश श्रीवास्तव, विद्याधर मालवीय, मोहम्मद सरवर प्रमुख थे। मुख्तार अब्बास नकवी प्रदर्शन में थे, लेकिन उन्होंने गिरफ्तारी नहीं दी। वह पहले समाजवादी थे, बाद में कांग्रेसी हो गए।अब लंबे समय से भाजपा में है और केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं।
गिरफ्तारी के बाद हम लोगों को कोर्ट में पेश किया गया। हम सभी के हाथ में हथकड़ी लगा दी गई। ऐसी-ऐसी धाराएं लगाई गई थी, जिससे हम लोगों को जमानत न मिले। मैंने कोर्ट को बताया कि मैं बतौर वकील इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करता हूं। मैं कोई अपराधी नहीं हूं। मैंने सत्याग्रह करते हुए अपनी गिरफ्तारी दी है। लेकिन मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है जैसा किसी अपराधी के साथ किया जाता है। अपराधी के हाथ में हथकड़ी लगाई जाती है। इस पर कोर्ट ने पुलिस अधिकारी को फटकार लगाकर हथकड़ी खोलने का आदेश दिया।
मुझ पर गैर जमानती मामला बनाने के उद्देश्य से तोड़फोड़ और मारपीट करने का मामला दर्ज किया गया। मामले की सुनवाई के दौरान मैंने कोर्ट को अपनी शारीरिक स्थिति बताते हुए यह सफाई दी कि मुझ पर जो आरोप लगाए गए हैं वह बेबुनियाद हैं। आखिर में कोर्ट ने मेरी जमानत दे दी। बाद में मेरे साथ गिरफ्तार दूसरे सभी साथियों को भी जमानत मिल गई।
मेरा कोई संबंधी इलाहाबाद में नहीं था। जमानतदार कहां से मिलेगा! आपातकाल में लोग डरे हुए थे। वकील आलोक चटर्जी और सुशील श्रीवास्तव ने जमानत करा दी। जमानत मिलने के बाद भी मैं जेल में था। बाकी साथियों के संबंधी जमानत करा कर उन्हें ले गए। जमानत का आदेश होने के बाद मोहम्मद मेहंदी (वकील) को पता चला तो वे खुद आलोक चटर्जी के पास गए और उन्होंने उनसे मेरी जमानत लेने की बात कही। मोहम्मद मेहंदी की ओर से मेरी जमानत देने पर मेरी रिहाई हुई। मुझ पर मीसा नहीं लगा था।
आपातकाल के बाद की स्थिति और मैं
आपातकाल हटने और लोकसभा चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी की करारी हार व जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद भी मैं लोहिया विचार मंच से जुड़ा रहा। कहा जा सकता है कि मैं किशन पटनायक के साथ रहा और कई साल तक उनके ही साथ रहा।
विभिन्न समाजवादी दलों के नेता जनता पार्टी में शामिल हो गए। लोहिया विचार मंच के भी कई नेता कार्यकर्ता जनता पार्टी में शामिल हो गए, लेकिन किशन जी और उनके साथ के कुछ नेता-कार्यकर्ता जनता पार्टी से दूर रहें। किशन जी ने जनता पार्टी के गठन के वक्त कहा था कि समाजवादी खेमा या उनकी पार्टी अगर जनता पार्टी में शामिल होगी तो वे अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएंगे। उनका कथन अंततः सत्य हुआ।
मैं जनता पार्टी से नहीं जुड़ा, लेकिन जनता पार्टी में शामिल समाजवादी नेताओं से मेरा अच्छा संबंध था। यह संबंध समाजवादी होने और डॉक्टर लोहिया के विचारधारा को पालन करने एवं सक्रिय रहने की वजह से था। ऐसे नेताओं में सुरेंद्र मोहन समेत कई नेता थे। सुरेंद्र मोहन और कई नेता जनता पार्टी में रहते हुए भी किशन जी के करीबी बने रहे। किशन जी के लोहिया विचार मंच के समाप्त होने और उसकी जगह समता संगठन का गठन होने के बाद भी इलाहाबाद का लोहिया विचार मंच बरकरार रहा। इस पर किशन जी एवं उनके साथ के नेताओं को कोई आपत्ति नहीं थी।
इलाहाबाद का लोहिया विचार मंच स्वतंत्र होकर अपने विभिन्न कार्यक्रमों में जुट गया। मैं उस मंच के माध्यम से पहले से ज्यादा सक्रिय हो गया। रवि किरण जैन, रमेश कुशवाहा और कई समाजवादी विचारक जनता पार्टी से नहीं जुड़े। वे लोहिया विचार मंच में बने रहें और विभिन्न कार्यक्रमों में मेरी मदद करते रहें। वे खुद भी सक्रिय थे। उसी समय से मैं किशन जी से दूर होता चला गया। इसका कारण यह था कि मैं समता संगठन में शामिल नहीं था।
मेरी दिनेश दास गुप्त से करीबी बढ़ गई थी। वह किशन जी के लोहिया विचार मंच से अलग हो गए थे। कुछ समय बाद उनका भी जनता पार्टी से मोहभंग हो गया और वे उससे अलग हो गए। वह पहले से ही निखिल भारतीय वनवासी पंचायत में थे। किसी पार्टी में नहीं रहने के कारण उसमें ज्यादा सक्रिय हो गए। मैं भी उनके साथ आदिवासी आंदोलन में सक्रिय हो गया। उत्तर प्रदेश,पश्चिम बंगाल और अविभाजित बिहार के विभिन्न आदिवासी इलाके मेरे कार्यक्षेत्र हो गए।
मुक्ति संग्राम
मुक्ति संग्राम पत्रिका के माध्यम से हम सभी साथी अपनी बात आम लोगों तक पहुंचाते थे। हमारे संघर्ष में यह पत्रिका एक तरह से ‘समाजवादी साथी’ के रूप में मददगार थी।
लोहिया विचार मंच से जुड़ने वालों में मैं और नरेश सहगल, डॉक्टर श्रीवल्लभ (कुलभास्कर आश्रम डिग्री कॉलेज के रिटायर्ड प्राचार्य) और शिक्षक स्वर्गीय शिवेंद्र झा ने मिलजुल कर इस पत्रिका को निकालना आरंभ किया। सुशील श्रीवास्तव और ललित मोहन शुक्ला भी हमारे सहयोगी थे। एजी ऑफिस के सतीश मिश्र ने मुक्ति संग्राम के कार्य के लिए एक कमरे (चितगंज मोहल्ला) की व्यवस्था कर दी थी। वह कमरा किराए पर था। किराए की जिम्मेदारी खुद सतीश मिश्र ने ली थी। इस कमरे में पत्रकार जयशंकर गुप्त उन दिनों कभी-कभी रहते थे। शमीम आलम ने साइक्लोस्टाइल मशीन खरीद कर दे दी थी। हम लोगों के पास दो मशीन थी। एक मशीन पटना के साथी रघुपति ले गए। एक हमारे पास रहती थी।
आपातकाल में मुक्ति संग्राम को छापने के लिए एक प्रेस तैयार हो गया था। उस प्रेस को रामनारायण जायसवाल के पुत्र सुनील जायसवाल चला रहे थे। इस बारे में उनकी शिवेंद्र झा से बातचीत हुई थी। डॉक्टर बल्लभ छपे हुए मुक्तिसंग्राम को साइकिल से लाते थे और उसे वितरित करने के लिए हम सभी को दे जाते थे। उसे हाईकोर्ट के वकीलों और वहां से जुड़े दूसरे लोगों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा स्कूल कॉलेज के छात्रों के बीच वितरण किया जाता था। इस काम में हाईकोर्ट के अवधेश प्रताप सिंह, मूल सक्सेना, टीपी सिंह, अवधेश प्रसाद सिंह समेत कई लोग आर्थिक सहयोग देते थे। एजी (पेंशन)  मोहन लाल गुप्त, ओमकार श्रीवास्तव, रवि मालवीय, दयाशंकर सिंह, गोपाल गौड़, एजी (पेंशन) के देवीशंकर अवस्थी, विश्वनाथ सिंह मुखिया, डॉ प्रियदर्शी, इफ्तिखार भाई, महावीर गुप्त और रमेश चंद्र कुशवाहा पत्रिका के लिए पैसा इकट्ठा करते थे।
आपातकाल में पटना में रहने के दौरान भी मैंने मुक्ति संग्राम निकाला था। 1977 में लोकसभा चुनाव के दौरान जनता बुलेटिन निकाला गया। कटरा के एक प्रेस से यह छापा जाता था। रोज करीब 1000 प्रतियां छपती थी। वह एक डेढ़ घंटे में बिक जाती थी, जिसकी कीमत ₹1 थी। कुछ पाठक पांच-दस रूपये भी दे देते थे। उस दौरान कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त हवा थी। जनता बुलेटिन में कांग्रेस के खिलाफ सामग्री छपा करती थी, जिसे पाठक पसंद करते थे।
उन दिनों अन्याय, जुल्म, शोषण के खिलाफ आंदोलनकारियों द्वारा कई पत्रिकाएं निकाली जा रही थी। पढ़ने लिखने वाले युवकों की ओर से कई साहित्यिक पत्रिकाएं भी निकाली जा रही थी। जागरूक करने वाली कविताएं, कहानियां भी छपा करती थी। उस समय व्यवसायिक पत्रिकाओं में भी आंदोलन के पक्ष में और छात्रों व युवकों को जागरूक करने वाली सामग्री छपती थी। दुर्भाग्यवश आज ऐसी पत्रिकाओं की कमी खलती है। अंग्रेजी का बाजार बनाने के मकसद से वह एक-एक कर बंद कर दी गई हैं।
मधु लिमए के पत्र के साथ चौधरी चरण सिंह तथा सीबी गुप्त से मुलाकात
18 मार्च 1976 को लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो गया था लेकिन इंदिरा गांधी की हुकूमत ने इसका कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया। लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचलने के विरोध में मधु लिमए और शरद यादव ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था।
मधु लिमए जब आपातकाल में
मध्य प्रदेश के जेल में थे, तब उनका पत्र जयशंकर गुप्त के पास आता था। पत्र के साथ जयशंकर गुप्त और मैं लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी। लेकिन हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा चाहती है। लिहाजा विपक्ष को इसका बहिष्कार करना चाहिए। हमने इस आशय का एक पत्र चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में उन्होंने  लिखा  ‘चुनाव में शामिल होने वाले नहीं, बल्कि विधान परिषद के चुनाव बहिष्कार की बात करने वाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं’। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु लिमए का आदेश था, इसलिए हम लोग चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें डांट कर कहा  ‘यह तो बचे खुचे लोकतंत्र को मिटाने में सहयोग करने के तरह होगा’। लेकिन हम दोनों को उनकी बातें समझ में नहीं आई। जब यह बात हमने मधु लिमए को बताई तो उन्होंने पत्र के माध्यम से कहा कि चौधरी साहब के पीछे पड़े रहने का कोई फायदा नहीं है। यहां पर संघ के लोग माफीनामा लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए।
 चंद्रभानु गुप्त जी के साथ मुलाकात भी कुछ खास उत्साहवर्धक नहीं रही। उन्होंने मुझे पढ़ाई लिखाई पर ध्यान देने की नसीहत दी और कहा उसके लिए मदद चाहिए, तो मिल सकती है। हमने उन्हें कुछ खरी-खोटी सुनाकर उनसे विदा लिया। तभी नीचे उनके करीबी युवा कांग्रेस संगठन के अध्यक्ष माया कृष्णन,जो बाद में युवा जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने थे, वह भागते हुए आए और ₹500 देते हुए कहा कि गुप्ता जी को गलत मत समझना।
(लेखक उत्तरप्रदेश पीयूसीएल से जुड़े आजीवन सदस्य हैं)